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शाक्त मत, वैष्णव सम्प्रदाय (shakta mat, veshnava sampradaay)

वैष्णव सम्प्रदाय (veshnava sampradaay)

 वैष्णव सम्प्रदाय
वैष्णव सम्प्रदाय

भगवान विष्णु को आराध्य मानकर उनके विविध रूपों की पुजा करने वाले वैष्णव सम्प्रदाय ‘ कहलाते हैं । राजस्थान में वैष्णव धर्म ( सम्प्रदाय ) का सर्वप्रथम उल्लेख ई . पू . द्वितीय शताब्दी के घोसुण्डी अभिलेख में मिलता है । पाँचवी – छठी शताब्दी के जोधपुर के निकट मण्डोर के अवशेषों में भगवान विष्णु के गोवर्धन धारण , शकट – भंजन , कालीयदमन एवं धेनुपाल रूपों का उल्लेख उपस्थित है । आठवीं शताब्दी तक कृष्णावतार को पूर्ण मान्यता मिल चुकी थी । वैष्णवों का मुख्य मंत्र ‘ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ‘ रहा है , जिसका उल्लेख बाहुक शिलालेख ( 918 विक्रमी ) में मिलता है । प्रतिहार काल में ओसियाँ , किराडू , सादड़ी एवं केकिन्द ( नागौर ) वैष्णव धर्म के प्रमुख केन्द्र रहे हैं ।वैष्णव सम्प्रदाय में ईश्वर प्राप्ति का माध्यम भजन , कीर्तन एवं नृत्य कर ) माना गया है ।

इस सम्प्रदाय के संत कर्मकाण्ड , नरबलि , पशु बलि गद्दियाँ आदि भयावाह क्रियाओं के घोर विरोधी रहे हैं ।

वैष्णव सम्प्रदाय का प्रारम्भ दसवीं शती में दक्षिण भारत में दाय ‘ आचार्य यमुनाचार्य द्वारा किया गया था। वर्तमान में इस सम्प्रदाय की चार प्रमुख शाखाएँ हैं , जिन्हें ‘ चतुर्सम्प्रदाय ‘ भी कहा जाता है ।

ये हैं — रामानुज , निम्बार्क , वल्लभ एवं गौड़ीय सम्प्रदाय ।

1.जसनाथी सम्प्रदाय, मारवाड़ का नाथ सम्प्रदाय (jasnathi sampradaay, marwar ka nath sampradaay)


2.राजस्थान की सगुण भक्ति धारा, शैव मत, नाथ सम्प्रदाय ( पंथ ) (rajasthan ki sahgun bhakti dhara, shev mat, nath sampradaay (panth)

शाक्त मत (shakta mat)

शिव की भांति शक्ति की दैवी रूप में पूजा राजस्थान में प्राचीनकाल से ही प्रचलित रही है ।

शक्ति उपासकों को ही ‘ शाक्त ‘ कहा जाता है ।

सिन्धु घाटी सभ्यता में भी मातृदेवी के रूप में शक्ति पूजा के अवशेष मिलते हैं

की मध्यकालीन अनुष्ठानों में मार्कण्डेय पुराणान्तर्गत दुर्गा सप्तशती का राम् नवरात्र में पाठ करने का उल्लेख मिलता है । आज भी यह परम्परा प्रस् राजस्थान के शक्ति के उपासकों में देखने को मिलती है । राजस्थान में शक्ति की पूजा विविध रूपों यथा हिंगलाज , मातृदेवी , सच्चिका , क्षेमकारी , राधिका , सरस्वती , लक्ष्मी , काली , देवी , अम्बिका , चण्डिका , भवानी , योग माया , कात्यायनी , कामरूपा एवं महिषासुर मर्दिनी के रूप में देखने को मिलती है । क्षत्रिय जब युद्ध में उतरते थे तो समूचा रणक्षेत्र ‘ जय माता की के रणघोष से गूंज उठता था । शांतिकाल में यहाँ के राजाओं ने अनेक मन्दिरों एवं शक्तिपीठों का निर्माण करवाया । यहाँ के अधिकांश राजवंशों ने देवी के किसी एक रूप को कुलदेवी के रूप में पूजा । सिसोदियों ने बाणमाता , मारवाड़ के राठौड़ों ने नागणेची माता , बीकानेर के राठौड़ों ने करणीमाता , कच्छवाहों ने अन्नपूर्णा माता , एवं भाटियों ने स्वांगियाजी ( आवड़माता ) को अपनी कुलदेवी माना ।

युद्ध में जाने से पूर्व कुलदेवी का आह्वान किया जाता था ।


1.गौड़ीय सम्प्रदाय (ब्रह्म सम्प्रदाय), वल्लभ सम्प्रदाय (पुष्टिमार्गीय), विट्ठलनाथ जी के पुत्र (godiya sampradaay(brahaman sampradaay), vallabha sampradaay(pustimargiya), vitalanath ji ke putra)


2.राजस्थान के रामस्नेही सम्प्रदाय, संत दरियावजी रेण शाखा (rajasthan ke ramsanehi sampradaay, sant dariyavaji ren shakha)


3.संत रामचरण जी, हरिराम दास जी, संत रामदास जी (sant ramcharn ji, hariram das ji, sant ramdas ji)



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