आऊवा का जम्मर, aahuwa ka jammer
जिस आऊवा का जम्मर राजा उदयसिंह ( मोटा राजा ) के शासनकाल में 1586 ई . में आऊवा ( पाली ) का इतिहास प्रसिद्ध आऊवा का जम्मर ( पुरुषों का जौहर ) हुआ , जिसमें राजा से नाराज अनेक चारणों ने अक्खा बारहठ की अगुवाई में प्राणोत्सर्ग किये गये। 1586 ई . में जोधपुर ( मारवाड़ ) की राजमाता झाली राणी द्वारिकाधीश की यात्रा करके जालौर के रास्ते जोधपुर आ रही थी । बीच रास्ते में समदड़ी ( बाड़मेर ) के पास गोविन्द गढ़वाड़ा गाँव में वैल ( बैलगाड़ी ) के बैल थक गये । राजमाता के सेवक ने इस गाँव की सरहद में से नारायण चौधरी के बैल लेकर जबरदस्ती बैलगाड़ी में जोत दिये
घटना की खबर लगते ही गाँव के जागीरदार गोविन्द बोगसा ( चारण ) ने वैल का पीछा किया वैल के निकट पहुँचकर उसने बैलों को खोलकर छुड़ा लिया । जल्दबाजी में वैल ( बैलगाड़ी ) पलट जाने से राजमाता का हाथ टूट गया । इस घटना से क्रुद्ध होकर राजा उदयसिंह ने मारवाड़ के समस्त चारणों के जागीरी गाँव जब्त करके देश निकाला दे दिया गया ।गोविन्द बोगसा एवं नारायण चौधरी ने पश्चाताप करके प्राणोत्सर्ग कर दिये । गोविन्द बोगसा को समदड़ी क्षेत्र में लोकदेवता ( मांमाजी ) के रूप में पूजा जाता है ।
कवि मोडजी आशिया ने ‘ मामा गोविन्दजी री झमाल ‘ नामक राजस्थानी काव्य की रचना की है ।
राजस्थान में सहकारिता आंदोलन (rajasthan me sahakarita aandolan)
राजा उदयसिंह मोटा राजा, raja udai singh mota raja
राजा उदयसिंह ( मोटा राजा ) द्वारा समस्त चारणों को देश निकाला देने के निर्णय पर अक्खा बारहठ , दुरसा आढ़ा एवं आऊवा का जम्मर के सामंत गोपालदास चम्पावत द्वारा राजा को समझाया गया पर बात न बनी । इससे नाराज होकर मारवाड़ क्षेत्र के चारणों द्वारा आऊवा ( पाली ) के कामेश्वर महादेव मंदिर परिसर में एक विशाल धरणा दिया गया । धरणे के अंत में कवि अक्खा बारहठ के नेतृत्व में चारणों आत्मोत्सर्ग ( जम्मर ) किया । इस स्थान पर ‘ सत्याग उद्यान बनाया गया है । यहाँ पर प्रतिवर्ष चैत्र मार पूर्णिमा को ‘ सत्याग्रह मेला लगया जाता है ।
स्रोतः मारवाड़ का इतिहास – उदयसिंह की मृत्यु 1595 ई . को लाहौर में हुई ।
वहीं पर रावी नदी के तट पर उसका अंतिम संस्कार किया गया ।
उसकी रानियों के सती होते समय उनकी दृढता । देखने के लिए अकबर स्वयं नाव में बैठकर आया था ।
सवाई राजा शूरसिंह, sawai raja shursingh ( 1595 – 1619 ई . )
राजा उदयसिंह के पुत्र शूरसिंह ने 1595 ई . में जोधपुर का शासन संभाला । अकबर ने इन्हें सवाई राजा की उपाधि दी थी । शूरसिंह की राज्य सेवा से प्रसन्न होकर अकबर ने उसे 16 परगने दिये । मारवाड़ राज्य के अलावा गुजरात की सूबेदारी , दो हजार जात तथा सवा हजारी मनसब भी दिया ।अकबर की मृत्युपरांत बहादुरशाह के अहमदाबाद आक्रमण को विफल करने से प्रसन्न होकर जहाँगीर ने शूरसिंह का दर्जा 5 हजारी जात व 3 हजारी सवार तक कर दिया । सूरसिंह जीवनभर मुगल सम्राटों ( अकबर व जहाँगीर ) की सेवा में रहा , अपने शासनकाल के 24 वर्षों में मात्र 9 माह तक ही जोधपुर में रहने का सौभाग्य उन्हें मिला
शुरसिंह ने अपने पूर्व राजाओं के वंशजों को बराबर दर्जा समाप्त कर उन्हें मातहत का दर्जा देते हुए
दरबार दाँये – बाँये बैठने का नियम बनाया । दाहिनी ओर से रणमल की संतानों में से आउवा के चंपावत को बायीं ओर जोधा के वंशजों में से रीयां के मेड़तियों प्रथम स्थान निश्चित किया गया था। राजा की तलवार वं ढाल रखने का काम खुची चौहानों को और चँवर करने का काम धाँधल राठौड़ों को सौंपा गया ।
राजा शुरसिंह ने जोधपुर की तलहटी के महल , सूरजकुण्ड , सूरसागर तालाब तथा सूरसागर स्थित महल बनवाये गये ।
1.जालौर, उज्जैन, कन्नौज और वत्सराज प्रतिहार (jalore, ujjain, kannauj or watsaraj pratihar)
2.मण्डोर के प्रतिहार राजवश (mandhor ke partihar rajvansh)
3.राजस्थान के प्रमुख राजवंश – अग्निकुण्ड, ब्राह्मण, सूर्य व चन्द्रवंशी राजवंश (rajasthan ke pramuk rajvansh – agnikund, bhrahamn, surye v chandravanshi rajvansh)